मैं तब से खड़ा हूँ यहाँ पर
जब कोई नही आता था यहाँ
सिवाय उन चिडियों की चहचाहट के
जो हमारे ऊपर से गुजरते हुए
हमारी जटाओं को देखकर
अनायास ही कुछ बातें करने लगते थे |
मेरे पास खड़े दोस्त भी खुश हो जाते थे
और होड़ मच जाती थी हममे
की कौन अपनी जटाएं कितनी फैला सकता है |
फ़िर धीरे-धीरे मैंने देखा
कुछ थके-परेशान लोगों को हमारे पास आते हुए
पहले तो मुझे अच्छा नही लगा
उनका इस तरह हमारे परिवार में बेरोकटोक आना-जाना
पर यहाँ से लौटते वक्त उनके चेहरों की संतुष्टि
हमारी आत्माओं को तृप्त करने लगी |
फ़िर जो भी आता
हम जम कराने देने लगे
जो कुछ भी था हमारे पास
फल-फूल, छांह-प्रेम सब कुछ |
पर शायद ये काफी नही था
इंसानों के ह्रदय परिवर्तन के लिए
और एक-एक करके मेरे सभी साथी
मुझसे बिछड़ते चले गए |
दर्द तो बहुत हुआ अपनो से बिछुड़ने का
पर सब कुछ सह लिया
नियति की इच्छा मानकर |
--------------------------------------------
फ़िर कुछ दिनों बाद देखा
उस शिल्प की अनुपम कृति को बनते हुए
अपने इस नंगी आंखों से
वो ईंट-से-ईंट जुड़ता हुआ
और बनता हुआ कुछ अद्भुत |
शायद ये मेरे उस पूर्वाग्रह को बदल रहे थे
कि मानव सिर्फ़ विध्वंशक ही है |
मैंने एक और रूप देखा उसका
एक रचनाकार का, एक शिल्पकार का |
और फ़िर कई सारे लोग रोजाना
देश-विदेश से |
वो आते थे, रुकते थे उसी 'ताज' में
और कुछ मेरी छांह में |
ज़िन्दगी में फ़िर से एक नया आनंद आने लगा था
रोज नए-नए लोग
खुशियाँ बाँटते, अपने गम से दूर |
पर शायद मेरा आनंद,
नियति से मेल नही खाता
जो मुझे रूबरू किया गया
उस २६ नवम्बर की शाम से
उन चीख-चीत्कारों से,
गोलियों-बंदूकों से,
उन विधवा माँओं से,
उन निर्दोष लाशों से,
उस असहनीय 'सत्य' से
जिसे देखकर या सोचकर भी
आत्मा कलपने लगती है |
विश्वास हटने लगता है
मूल्यों से, इंसानियत से, ईश्वर से
अपने अस्तित्व से |
------------------------------------------
मैं आज भी पछताता हूँ
कोसता हूँ अपने भाग्य को
कि मुझे भी क्यों नही मार दिया गया
मेरे दोस्तों के साथ
क्यों जीवित छोड़ा मुझे नियति ने
उस क्रूर नर-संहार का साक्षी बनने को |
आज फ़िर वो दर्द
ताजा हो चुका है
बल्कि उससे कहीं ज्यादा
जो मैंने महसूस किया था
अपने दोस्तों से बिछुड़ते वक्त |
अब बिल्कुल ही जीने की इच्छा नही रही,
बस खड़ा हूँ इसी उम्मीद में
की मेरी मौत मेरे साथियों की तरह 'आम' नही होगी
सिर्फ़ उसकी आवश्यकतों कि पूर्ति के लिए
जैसा वो आज तक करता आया |
मुझे छलनी किया जाएगा
वहशियत के साथ,
गोलियों की बौछार से
क्योंकि तब तक कोई ऐसा जीव बचेगा नही
जिसे तिल-तिल मरता देखकर
उन दरिंदों की बंदूकें अट्टहास करती हैं |
-----------------------------------------
उपसंहार :
नवम्बर से इस झील का रंग
थोड़ा लाल सा हो गया है
किनारे खड़े पेड़ के हरे-हरे पत्ते
अपने आप गिर रहे हैं उसमे
ऐसा लग रहा है
मरते-मरते भी ये पेड़
अन्तिम आहुति देना चाह रहे हैं
इस कृतध्न समाज को
अपने आंसुओं की चिता के रूप में
जिसमे बैठकर जाना है
इंसान को जाने कहाँ ?
- राजेश 'आर्य'
----विश्व पर्यावरण दिवस, २००९ --------------------------
Friday, June 5, 2009
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
dard.........peeda......vedna.....santras...
ReplyDeletekavita me samaaye hain
hum toh badhai dene aaye hain......
narayan narayan
ReplyDelete