लाशें उन वतन परस्तों के सपनों की,
जहाँ खंडहरों के मलबों में मिला करे |
देश अपना तो अब आजाद है,
कोई क्यों गिला करे ?
देख ली है संसद और ताज ने खूब गोलियां,
कोई तो अब नयी इमारतें खड़ा करे ?
यह रहा है समर्थक मानवाधिकारों का,
क्यों ना अफज़ल-कसाब केस लड़ा करे ?
बात है अब नागालैंड - अरुणाचल की
'उस' भूले कश्मीर की अब कौन चर्चा करे ?
उस 'नागरिक' के 'समाज' को क्या कहें,
भूगोल जहाँ हर इतिहास से बचा करे |
कहाँ नहीं मिलते कानून के रखवाले आजकल,
क्यों ना हर शहर में 'रुचिका' मिला करे ,
अब नहीं होंगे कोई प्रश्न नैतिकता पर,
घोटाले भी तो अब यहाँ 'आदर्श' हुआ करे |
'उस' विकास की दौड़ में हम भी कुछ कम नहीं,
क्यों ना यह हरेक की जुबां से लगा करे,
कौन चाहता है 'हिन्दी' होकर नीच दिखना
अंग्रेजियत से भला कोई क्यों दगा करे ?
भूलकर अपनी संस्कृति के मूल्यों को,
जो उधार 'सभ्यता' औरों की लिया करे |
खायें यहाँ की और गाएँ किसी और की,
कोई आके हमसे यह तो सीख लिया करे |
- राजेश 'आर्य'
Saturday, November 20, 2010
Wednesday, November 3, 2010
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